ये दिल फुट फुट कर कभी रोना चाहता है...
और आखों को इजाजत भी नहीं होती ...की वो रोए..
इतनी गुलामी से जीना पड़ता है अपनी ही जिन्दगी को...
के अगर जीना हों खुद की सुबह हमें...
तो भी पूछना पड़ता है अगर तुम कहो तो आख खोले...
नीता कोटेचा
और आखों को इजाजत भी नहीं होती ...की वो रोए..
इतनी गुलामी से जीना पड़ता है अपनी ही जिन्दगी को...
के अगर जीना हों खुद की सुबह हमें...
तो भी पूछना पड़ता है अगर तुम कहो तो आख खोले...
नीता कोटेचा
7 comments:
सच का आइना
khub saras..
bahot he schi baat hai.
Sapana
इतनी गुलामी से जीना पड़ता है अपनी ही जिन्दगी को...
के अगर जीना हों खुद की सुबह हमें...
तो भी पूछना पड़ता है अगर तुम कहो तो आख खोले...
vaah कितने bhaav chipe हैं इस rachnaa meih ........... insaan अपनी ही किसी बंधन में bandh जाता है ........
khubaj saras chhe aapni rachnO, samji saku chhu kem ke hu pan sayri lakhu chhu.http://rangat108.blogspot.com/ kyare k time male to thoda samy pahela be kavita lakhi chhe... vadhu aatlamate nathi lakhi k Copy thai javano bhay lage chhe..
नीता जी,
अंतर्मन को छूती हुई सीधी-सीधी बात, जिसे हम सुविधा अनुसार कविता या शायरी कह सकते हैं। परिस्थितियों और वस्तुस्थितियों के बीच कोई जगह है तो वहां ये शब्द जन्म लेते है, बिल्कुल ब्रम्ह से शाश्वत।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
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