hum tumhare pas bhi nahi..
jiye to jiye kaise ye kah do hame
ki hum tumhare bhi nahi
aur hum kisi gairo ke bhi nahi
ये मेरी ख़ुद की लिखी हुई शायरी है ..मेरे दिल की बात
तुम्हें आवाज़ दे के देख लिया..
तुम्हें दिल से पुकार के देख लिया..
मैंने तो हर दम तुम्हारा साथ चाहा था..
इस कदर तो मुह ना मोड़ो,
कि टूट जाए हम,
ना तुम मुझे कभी ढूंढ़ पाओ ,
और ना कभी खुद को पा सके हम
अहमदाबाद एक्सप्रेस बहुत तेजी से अपनी मंज़िल की और बढ़ रही थी पर वनिता के मन में चैन नहीं था..ना आँखो में नींद थी...बस बीस साल पहले की बाते जैसे आँखो के आगे से एक पिक्चर की तरह आ जा रही थी...उसने अपनी सोच से बचने के लिये आँखे जोर से बांध कर ली ....आँखे बंध करने से सोच अटकती कहाँ है ?और बंध आँखों से भी सोच ने वनिता को जैसे घेर लिया और अपने अतीत के शिकंजे से वनिता खुद को ना बचा सकी..वो सोच रही थी कि कभी रिश्तो में हम ऐसे उलझ से जाते है कि हमें खुद को पता ही नहीं चलता की हम सही है या गलत..........|.
और उसे याद आ गई सारी बाते....वनिता के मम्मी पापा का देहांत हुआ तब वो सिर्फ १२ साल की थी.....अब घर में चाचा और वो दोनों ही बचे थे .. ..चाचा भी कहाँ ज्यादा बड़े थे.....बस उससे सिर्फ ८ साल बड़े..पर चाचा ने सब बहुत अच्छे से संभाल लिया था.और उसे याद आ गई सारी बाते....अब घर में वनिता की कोई भी बात हो तो .. आख़िरी निर्णय उसके चाचा का ही होता था..और चाचा की बात वो मान भी लेती थी..वो चाचा भतीजी से ज्यादा तो दोस्त थे एक दूसरे के..बस चाचा ही उसकी जिन्दगी थी|
ऐसे ही जब वो एक दिन सुबह सो कर उठी थी तो उसने देखा था कि उनके कई रिश्तेदार घर आये हुए थे..और जाते वक्त कहते गए कि आज शाम को चाचा को देखने कोई लड़की वाले आने वाले है .... वनिता इस बात को तो भूल ही गई थी की चाचा की जिन्दगी में उसके अतिरिक्त दूसरी लड़की भी कोई आ सकती है उसे ऐसा लगता था कि जैसे वो और चाचा ही पूरी जिन्दगी साथ साथ रहने वाले है ......|
और कुछ दिन के बाद चाची आ ही गई.....चाची का आना वनिता को पसंद नहीं आया |अब चाचा को उसके लिये कहाँ वक्त था....वनिता को दुःख इस बात का था की चाचा को पता भी नहीं था कि उसके दिल पे क्या बीत रही थी..
थोड़े दिन बाद चाची को वापस उसके मायके वाले अपने घर ले गए और कह के गए की हम ८ दिन बाद छोड़ के जायेंगे..अब वनिता खुश थी की अब वो चाचा के साथ अकेली रह सकेगी....|
जिस दिन चाची गई उस दिन वनिता ने बहुत अच्छा खाना बनाया..खाना खाने के बाद दोनों थोड़ी देर साथ में बैठे बात करने के लिये..चाचा उसे सब पूछ रहे थे कि कैसी चल रही है पढ़ाई...घर आने और जाने का वक़्त उसकी सहेलियों के बारे में और भी बहुत कुछ..
तभी चाचा को बीच में रोकते हुए वनिता ने कहा " कितने दिनों बाद आप ये सब मुझ से पूछ रहे हो..कहाँ खो गए हो आप?"चाचा ने हँस के जवाब दिया"वनिता अब मेरी भी जिम्मेदारी है,...मुझे तुम्हारी चाची की तरफ भी तो ध्यान देना है ना.अब तुम्हारे लिये तुम्हारी चाची है ना..उसके कहो अपने मन की बाते ..अपना सारा दिनचर्या अपनी चाची से कहो ...वो भी खुश हो जाएगी .. ..तभी वनिता बिच में ही बोल उठी" जरुरत क्या थी शादी करने की ? क्या मै नहीं थी आप के लिये ?" चाचा जोर से हँस पड़े..और बोले"विनीता मेरी भी कुछ जरूरत होती है जो तुम पूरा नहीं कर सकती हो.."
और वनीता ने कहा" एक बार कहा तो होता सब ख़्वाहिश पूरी करती आपकी मै..मै भी अब छोटी नहीं हूँ "|और वनिता की बात सुन कर चाचा झटके से खड़े हो गए और कुछ भी बोले बिना गुस्से में अपने कमरे में चले गए
वनिता भी उनके गुस्से से डर गई..तब तो अपने कमरे में चली गई पर पूरी रात सो ना सकी..सुबह होते होते उसे नींद आई..जब उठी तो उसने देखा ८ दिन बाद आने वाले चाची घर वापस आ गई थी ....वनिता समझ गई कि चाचा ने ही उनको बुला लिया होगा..दो दिन बीत गए उसने देखा चाचा उसके साथ बात नहीं कर रहे थे..|और तीसरे दिन वनिता घर छोड़कर निकल गई..
पूरे रास्ते वनिता वो ही तो सोच रही थी कि क्या क्या नहीं हुआ इतने सालो में उसके साथ.. कितने लोग आये उसकी जिंदगी में ..जब चाचा के घर से निकली थी तब क्या था उसके साथ ... बस एक सहेली का साथ ..उसीने तो उसे मुंबई भेजा था..वहां जाने के बाद पहले दो दिन वो सहेली के साथ उसके मामा के घर रही और दो दिन के बाद उसने वहां की एक हॉस्टल में उसे जगह दिला दी..और फिर एक ऑफिस में काम.. आहिस्ता आहिस्ता ऑफिस वालो के साथ दोस्ती हों गई.....काम ज्यादा करने लगी.....पैसे कमाने लगी और किराये पे अपना छोटा सा घर लिया..बीच बीच में अपनी सहेली से चाचा का हाल जानती रहती थी..उसके चाचा वनिता के जाने के बाद पागल से हो गए थे... ..कहीं से वनिता का पता मिल जाये इसके लिए वो कितनी बार उसकी सहेली से उसके बारे में पूछ चुके थे.....कि वनिता का कोई समाचार मिले तो जरुर बताना.....समय जैसे अपनों को भी दूर कर देता है वैसे ही थक हार कर ... आहिस्ता आहिस्ता चाचा ने भी उसकी सहेली से भी बात करनी बंध कर दी थी |.पर इस बार उसी सहेली ने आ कर उसे ये खबर दी कि अब उसके चाचा बहुत बीमार है जब से वो घर छोड़ के गई है .....
ये सुन कर खुद पे काबू नहीं रख पाई वनिता और सहेली कि गोद में सर रख कर फूट फूट रो पड़ी ......जैसे बरसो का रुका सैलाब अपने किनारे तोड़ कर बाहर आ गया हो|अब उसके सामने सबसे बड़ा प्रशन ये ही था कि वो घर कैसे जैसे ..चाचा चाची का सामना कैसे करे ..उनसे नज़रे कैसे मिलाये? बहुत बार अकेले में सोचती थी की गलती किसकी थी उसकी ...उसकी उस उम्र की या उसकी सोच की..चाचा ने तो कभी कोई गलत व्यवहार नहीं किया था.. तो उसे ये आकर्षण कैसे हों गया था?..उसके दिमाग में तब एक ही बात थी की चाचा सिर्फ मेरा ही है..वो और किसका हों ही नहीं सकता और उसके लिए वो कुछ भी करने को तैयार थी....चाचा ने भी तो कभी कुछ समझाने की कोशिश नहीं की...पर अगर चाचा समझाते तो क्या वो उस वक़्त उनकी बातो को समझ पाती ....शायद नहीं. और उसने चाचा को मौक़ा भी तो नहीं दिया की वो उसे कुछ भी समझा सके..बस रुठके घर छोड़ दिया था..और मुंबई आ गई बिना किसी को बताये | ऑफिस में कितने परिणित और बिन परिणित पुरुषो ने उसको प्यार करने की कोशिष की पर ना चाहते हुए भी सब में उसे चाचा ही दिखाई देते थे .पर एक इंसान ने आ कर ...उसकी सोच ...उसका अपने चाचा को देखने का नजरिया ही बदल के रख दिया ..तब उसे पता चला कि प्यार क्या है..और अपनों की देखभाल और उनको संभाल के रखने की जिम्मेवारी उसे उम्र की इस पड़ाव पर पता चली कि वो चाचा को अपने साथ गलत सोचती रही अब तक |पर कल अचानक ही उसकी सहेली ओफिस आ पहुंची और वनिता का हाथ खींचते हुए उस से बोली कि ''वनिता चलो तुम्हारा चाचा बस आखरी सांसें गिन रहे है और शायद तुम्हारा इंतजार है उन्हें......और वनिता सब कुछ छोडके अहमदाबाद की ओर दौड़ पड़ी थी.उसे कल ही पता चला था कि चाचा बहुत ज्यादा बीमार है..और उसे याद कर रहे है..घर पहुँच कर उसने देखा तो चाचा बिस्तर पे लेटे हुए थे..जैसे दिखाई भी नहीं दे रहे थे..और चाची बहुत रो रही थी ..वनिता को देख कर वो उसके करीब आई और बोली " वनिता तुम्हारे जाने के दिन से वो ऐसे ही बिस्तर पे है..और एक ही बात पूछ रहे है.की वनिता को संभालने में मेरी कहाँ गलती हुई?वनिताकी आँखो में ये सुन कर आंसू आ गए..और चाचा के पास जा कर बोली.." चाचा गलती आपकी नहीं थी गलती मेरी सोच में थी मुझे माफ़ कर दो.." और चाचा ने उसके सर पे हाथ रखा और आखिरी साँस ले ली..जैसे एक बोझ से मुक्ति मिल गई......|
नीता कोटेचा "नित्या"
"हॉस्पिटल का वातावरण ही कुछ ऐसा होता है जहां जाते ही दिल घबराने सा लगता है..जैसे मंदिर में जाने से खुद ही दिल को शांति सी लगती है वैसे ही हॉस्पिटल में जाने से खुद ही घबराहट शुरू हो जाती है..चारों ओर एम्बुलेंस रहती है कितने लोग रोते रहते है..कोई अकेले अकेले बाते करते रहते है..
आज मीनू का हॉस्पिटल जाना हुआ .. उसकी बेटी की सास की तबियत ठीक न होने से उन्हें भर्ती किया था..बेटी की शादी की हुए अभी ३ महीने हुए थे..जब बेटी और दामाद घूम के वापस आये..१० दिन सब घर का काम बता कर सास और ससुर गावं में खुद के दूसरे घर चले गए..इस बहाने कि बेटे और बहु को थोड़ा अकेले घर में साथ वक्त बिताने का मौक़ा मिले.. पर गावं में जाने के १५ दिन में ही सास को बहुत तेज बुखार आया.. दवाईयाँ की पर कुछ फर्क नहीं पड़ रहा था. तो उनको वापस मुंबई लाया गया. खुद की बीमारी से ज्यादा उनको ये दुःख था की नयी दुल्हन को अभी से ये सब परेशानिया आ गई थी..जब मीनू उसके पास पहुंची , तो बस वो,ये ही बात कहे जा रहे थे कि मै क्यों बीमार हुई..और उनका ये सरल स्वभाव देखकर मीनू को बेटी की किस्मत पर गर्व हो रहा था..की उसे कितने अच्छी सासू जी मिली हैं ...
दो घंटे मीनू उनके पास बैठी रही.. फिर जब वो घर जाने लगी तो लिफ्ट बंद होने के कारण उसको सीडिया से नीचे उतरना पडा. ७ मंज़िल उसे उतरनी थी, वो आहिस्ता आहिस्ता सब की तकलीफ़ देखकर वो उतर रही थी. कहीं बेटी माँ के लिये रो रही थी कहीं माँ बेटी के लिये. कितनी तकलीफ़ थी यहाँ सब के चेहरे पर...
जब तक हम घर से बाहर नहीं निकलते हमें पता ही नहीं चलता की कितनी परेशानियाँ है लोगो को..सीडिया उतरते उतरते उसने देखा सामने से तीन आदमी एक महिला का हाथ पकड़ कर उसे आहिस्ता सीडिया चढ़ा रहे थे...मीनू को ऐसा लगा की जैसे उसने उस महिला को कही देखा है.. जैसे जैसे वो लोग नज़दीक आ रहे थे वैसे उसे याद आ रहा था ..और उसे याद आया की ये तो उसकी सहेली जो स्कूल में उसके साथ पढ़ती थी वो स्मिता .. वो चारो उसके बाज़ू में से ऊपर निकल गए..वो बस देखती ही रह गई..उसके मुँह से एक शब्द बाहर ही नहीं आ रहा था
आगे जा कर उसमे से एक पुरुष का ध्यान पीछे मीनू की और गया.. तभी मीनू ने पूछा " ये स्मिता ही है न ?" उसमे से एक पुरुष ने जवाब दिया" हां पर मैंने आपको पहचाना नहीं.."
मीनू ने जवाब दिया " मै और स्मिता स्कूल में साथ में पढ़ते थे.पर उसे ये क्या हुआ है..?"
वो पुरुष ने जवाब दिया " अगर आपको वक्त है तो १० मिनिट ठहरिये ,,मै स्मिता को डॉक्टर के रूम में छोड़कर आऊ.
मीनू ने कहा" ठीक है मै इंतजार कर रही हूँ "
वो तीनों वापस स्मिता को लेकर चलने लगे..
वही ऊपर जा के मीनू एक सीट पर बैठ गई..और उसे अपने स्कूल के दिन याद आ गए.. टीचर को परेशान करना स्मिता का सबसे बड़ा शौक था..सबकी नक़ल करना उसे बखूबी आता था...उसके साथ रजा के दिनों में जुहू बीच पर जाना या पिक्चर देखने जाना और मस्ती करना ये अलग ही बात थी. स्कूलका जीवन ख़तम हुआ और कॉलेज में दोनों की अलग लाइन थी तो अलग कॉलेज में दाख़िला मिला..और जिंदगी में नए दोस्त आ गए..और पुराने दोस्तों को भूलते गए .आज मीनू को अफ़सोस हो रहा था की हम क्यों पुराने दोस्तों की खबर नहीं लेते.. .
अब i वो सोच ही रही थी की बात करने वाला पुरुष जो स्मिता के साथ था वो उसके करीब आया..उसके बाजू में बैठा और उसने बोलने का शरु किया.." मै तो आपको नहीं पहचानता.. पर आपने कहा की स्मिता आपकी स्कूल की दोस्त हैं ....
स्मिता पिछले २० साल से इस हालात से गुज़र रही है.. उसे खुद का भी कोई होश नहीं है..वो क्या कर रही है उसे कुछ पता नहीं चलता..न वो किसीको मुझे भी नहीं पहचानती ..मै उसका पति समीर हूँ
मीनू ने बीच मे ही प्रश्न पूछ लिया की "ऐसा हुआ कैसे?"
समीर ने कहा " हमारी शादी के एक साल में हमें एक बेटा हुआ .. बहुत खुश थी स्मिता..की पहली ही बार में भगवान् ने उसे बेटा दे दिया..पर डेढ़ साल बीतने पर पता चला की बेटा सुन नहीं सकता.फिर पता चला वो बोल भी नहीं सकता..तब तक हमें दूसरा बच्चा होने वाला था.. अब वो दूसरे बच्चे की आशा में जी रही थी..
नौ महीने के बाद दूसरा बेटा आया.. पहले ही दिन से वो उसके आजू बाज़ू बस आवाज करके देख रही थी की वो सुन सकता है या नहीं..पर हमारी किस्मत ख़राब की दूसरे बेटे को भी वो ही तकलीफ आई..और जब स्मिता को ये बात का पता चला वो टूट गई..
और ऐसी बीमार पड़ी की बस वो खुद को ही भूल गई.."
मीनू ने पूछा " तो क्या इस रोग का कोई इलाज नहीं है.."
समीर ने कहा " २० साल से तो मै सिर्फ ये ही काम कर रहा हूँ पर कोई फर्क नहीं..ये जो मेरे साथ थे वो हमारे दो बेटे है..जो बोल और सुन नहीं सकते..पर आज उनकी शादी भी हो गई है..पर मुझे मेरी पत्नी वापस नहीं मिली.."
तभी ही डॉक्टर .ने समीर को आवाज़ दी और कमरे में बुलाया.समीर ने तुरंत एक पेपर में कुछ लिखा और मीनू को देते हुए कहा" ये हमारा पता है, कभी हो सके तो हमारे घर स्मिता के पास बैठने शायद आपको देखकर उसे आपकी स्कूल की बाते याद आ जाए और वो ठीक हो जाए.." इतना कह कर वो डॉक्टर के पास चला गया..
पता हाथ में पकडे मीनू सोच रही थी की कैसा इंसान है ये..खुद ही कहता है की कोई इलाज ही नहीं है..और खुद ही और एक नई आशा को खुद के मन में जन्म दे के गया..शायद ये ही मानव मात्र का स्वभाव है..